-गंगा शरण सिंह
◆◆ हिन्दी में लिखकर जीवन के कई दशकों तक पुरस्कार और विदेश यात्राओं का आनन्द उठाने वाले लेखकों के इस जुगाड़ में विघ्न आ जाय तो हिन्दी कूड़े कचरे वाली भाषा हो जाती है।
ऐसे उच्चकोटि के विद्वानों को क्या उनके मित्र साहसपूर्वक ये नहीं बता सकते कि हिन्दी में सबसे ज़्यादा कूड़ा कचरा उनके और उन्हीं जैसे तमाम महत्वाकांक्षी लेखकों ने फैलाया है।
●◆◆ साहित्य को सामान्य पाठकों से दूर करते चले जाने में इस पीढ़ी की बहुत बड़ी भूमिका रही। जटिल और दुरूह लेखन के अलावा इन्होंने बड़े प्रकाशकों से साठगांठ करके एक ऐतिहासिक जूठ को जन्म दिया कि “हिन्दी की किताबें कौन खरीदता है, कौन पढ़ता है।”
हिन्दी का एक बेहद लोकप्रिय कथाकार एक बड़े प्रकाशक से सूचना पाता है कि उसके कहानी संग्रह की पाँच सौ प्रतियाँ बिक गयीं और वे बेचारे फेसबुक पर इसे एक बड़ी उपलब्धि की तरह घोषित करते हैं कि पहली बार उनकी किसी किताब की पाँच सौ प्रतियाँ बिकीं।
एक ऐसा कहानीकार जिसका शुमार वर्तमान समय के सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकारों में हो, जिसका हर उपन्यास/कहानी संग्रह लगभग सौ पृष्ठों और अधिकतम मूल्य 75 रुपये से 120 रुपये तक सीमित हो, ऐसे जूठ को किस तरह सच मान बैठता है, समझ से परे है।
सर, यदि आप इतनी बड़ी जनसंख्या वाले मुल्क में हजार दो हजार पाठकों तक पहुँचने की स्थिति में भी नहीं पाते खुद को, तो लिखना छोड़ दीजिए। क्या फायदा इतनी क़वायद ( रातों की नींद और पर्यावरण की हानि ) करके?
एक दो ईमानदार प्रकाशक अचानक इस चोर बाजारी के परिदृश्य पर अवतरित होते हैं और पूरा माहौल बदल जाता है।
विज्ञान केन्द्रित किताब की डेढ़ हजार से ज़्यादा प्रतियाँ डेढ़ साल में और पौने पाँच सौ रुपये मूल्य की कविता की किताब की आठ सौ प्रतियाँ प्रकाशित होने के कुछ महीनों में बिक जाती हैं। जबकि खुले आम कहा जाता है कि कविता की किताबें बहुत कम बिकती हैं।
“हिन्दी किताबें कौन खरीदता है” ये पिछली आधी सदी का सबसे बड़ा झूठ और अफ़वाह है!!
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